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14:32, 19 नवम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
डिगरियों का है मिरे साथ भी रेला साहब
हाथ आया है मगर हाथ का ठेला साहब
चाहे निबटाइये फ़ाइल, चाहे रोके रखिए
जेब में अपनी नहीं एक भी धेला साहब
ढेरों बन्दूकें उठीं, सैकड़ों खंजर चमके
मैंने सच बोल के क्या क्या नहीं झेला साहब
खै़रियत पूछने अक्सर वो चला आता है
ग़म के दलदल में मुझे जिसने ढकेला साहब
कौन किसका, सभी पैसे को मरे जाते हैं
वो तिवारी हों, खरे हों या बघेला साहब
देखिए तो मेरा उस्ताद बना फिरता है
हाँ वही जो मेरे चेले का है चेला साहब
पहले छेड़ेंगे नहीं, बाद में छोड़ेंगे नहीं
रहना औक़ात में हैं हम ही ‘अकेला’ साहब
</poem>