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01:04, 7 दिसम्बर 2012 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
ख़ुश्क आँखों से कोई प्यास न जोड़ी हमने
आस हमसे जो सराबों को थी, तोड़ी हमने
बारहा हमने ये पाया कि लहू में है शरर
अपनी दुखती हुयी रग जब भी निचोड़ी हमने
जो सँवरने को किसी तौर भी राज़ी न हुई
भाड़ में फेंक दी दुनिया वो निगोड़ी हमने
इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी
अपनी कश्ती किसी साहिल पे न मोड़ी हमने
जब कोई चाँद मिला दाग़ न देखे उसके
आँख सूरज से मिलाकर न सिकोड़ी हमने
फस्ल बर्बाद थी आहट भी हमें थी लेकिन
जाने क्यूँ मोड़ दी उस द्वार पे घोड़ी हमने
ग़र्द ग़ैरत के बदन पर जो नज़र आयी कभी
देर तक अपनी अना खूब झिंझोड़ी हमने
</poem>