1,897 bytes added,
08:58, 13 फ़रवरी 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
हर गाम पर कहीं भी फुलवारियाँ नहीं हैं
किस रास्ते में यारो दुश्वारियाँ नहीं हैं
पर्चे ही लीक हों तो कुछ काम बन सकेगा
हैं इम्तहान सर पे तैयारियाँ नहीं हैं
अच्छा किया कि कर दी चारागरों की छुट्टी
अब लाइलाज तेरी बीमारियाँ नहीं हैं
सांसें तो चल रही हैं फिर भी हैं लोग मुर्दा
आँखें खुली हैं लेकिन बेदारियाँ नहीं हैं
उसमें भी वो नज़ाकत बाक़ी नहीं रही है
मुझमें भी पहले जैसी रंगदारियाँ नहीं हैं
है कारोबारे-उल्फ़त नादानियों के दम पर
चलतीं यहाँ किसी की हुशियारियाँ नहीं हैं
इस दौर में हरिक शै खुद से ही कट रही है
सीनों में दिल तो हैं पर दिलदारियाँ नहीं हैं
पाला है क्यों ‘अकेला’ ये नौकरी का झंझट
बस की तुम्हारे फ़रमाँबरदारियाँ नहीं हैं
</poem>