{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
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}}
<poem>
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मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!
मेरी कुंठा<br>रेशम के कीड़ों सी<br>ताने-बाने बुनती,<br>तड़प-तड़पकर<br>बाहर आने को सिर धुनती,<br>स्वर से<br>शब्दों से<br>भावों से<br>औ' वीणा से कहती-सुनती,<br>गर्भवती है<br>मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!<br> बाहर आने दूँ<br>तो लोक-लाज-मर्यादा<br>भीतर रहने दूँ<br>तो घुटन, सहन से ज़्यादा,<br>मेरा यह व्यक्तित्व<br>
सिमटने पर आमादा ।