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अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ।हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी ज़िन्दगी होम कर दी,उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ।हूँ ।
वे संबंध सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ।हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ।हूँ ।</poem>।
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