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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
काम आया बोलने का हौसला कुछ भी नहीं
अपनी कह के चल दिया उसने सुना कुछ भी नहीं

माफ़ कर ऐ चारागर मरने दे अब तो चैन से
इस क़दर मंहगी दवा और फ़ायदा कुछ भी नहीं

सुब्ह से लाइन में लग जाना था ग़लती हो गई
जब तलक नम्बर मेरा आया बचा कुछ भी नहीं

मज़हबों की खाइयाँ तक पूर दी हैं प्यार ने
तेरी मेरी जात का ये फ़ासला कुछ भी नहीं

शाम तक घनघोर बादल रफ़्ता-रफ़्ता छँट गये
होने वाला था बहुत कुछ पर हुआ कुछ भी नहीं

हाले-दिल किसको सुनाने के लिए बेताब हो
सब उसे मालूम है उससे छुपा कुछ भी नहीं

मुझको अंगारों पे चलता देख कर हैरान हो
रोज़ की ही बात है इसमें नया कुछ भी नहीं

हर सज़ा कम थी तुम्हारे वास्ते ये और बात
तुमसे अपने ज़ुर्म की पाई सज़ा कुछ भी नहीं

ताक़ पर रख दें ‘अकेला’ आप भी अपना ज़मीर
ये सियासत है सियासत में बुरा कुछ भी नहीं
</poem>
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