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10:27, 5 अप्रैल 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
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<poem>
मुजरिमों से भी बुरी मुन्सिफ़ों की हेटी हुई
खुल गई रील रहस्यों की जब लपेटी हुई
वक़्त पड़ने पे किनारा वो कर गया ऐसे
जैसे बिल्ली हो कोई श्वान की चहेटी हुई
किस क़दर होने लगी हैं मिलावटें तौबा
दुश्मनी भी तो मिली दोस्ती में फेंटी हुई
हाँ या ना कहने में बरसों लगा दिए मेडम
ये ज़ुबां आपकी सरकारिया कमेटी हुई
खीज उठी सास-‘लगे अस्पताल में आगी
जाँच में बेटा बताया था और बेटी हुई
शाम ढलते ही बढ़ी होगी और बेचैनी
गिन रही होगी सितारे वो छत पे लेटी हुई
एक से एक नज़ारे हैं देखने लायक़
फैलने भी दे ज़रा ये नज़र समेटी हुई
ऐ ‘अकेला’ कोई ‘सुकरात’ भी नहीं है तू
जाने किस बात पे दुनिया है तुझसे चेंटी हुई
</poem>