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{{KKRachna
|रचनाकार='अना' क़ासमी
|संग्रह=मीठी सी चुभन/ 'अना' कासमी
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<poem>
देखा मुझे तो शर्म से मुस्का के रह गया
उंगली को अपनी जु़ल्फ़ में उलझा के रह गया

ऐसा लगा कि दौड़ के लग जायेगा गले
दौड़ा ज़रूर बीच में बल खा के रह गया

दिल ने जगह दी जिसको वो लौटा नहीं कभी
आया जो एक बार, तो बस आ के रह गया

झुकती न गर निगाह तो खुल जाते सारे राज़
हाँ का सितारा आँख को चमका के रह गया

उसके इशारे मेरे भी पल्ले न पड़ सके
और वो भी भीड़-भाड़ में झल्ला में रह गया

दिल ने तो जाने कितनी दफ़ा कीं जसारतें
ईमान हर दफ़ा मुझे समझा के रह गया
<poem>