{{KKRachna
|रचनाकार=नीरज दइया
|संग्रह=उचटी हुई नींद / नीरज दइया
}}
{{KKCatKavita}}<poem>मैं मुक्त नहीं हुआ ओ मेरे पिता !
मैंने दी तुम्हें अग्नि
और राख हुए तुम
तुम्हें गंगा-प्रवाहित कर के भी
मैं मुक्त नहीं हुआ
ओ मेरे पिता !
नहीं रखी राख
नहीं रखी हड्डियां
नहीं बैठा रहा शमशान में
संजीवनी ?गंगा-प्रवाह संभावनाओं का अंत नहीं है !
मेरे भीतर भी
और तुम्हारे भी
मैंने तुमको पाया
मेरे ही अपने भीतरमैं मुक्त नहीं हुआ मैंने कभी चाही नहींमेरे मुक्ति..... मैं मुक्त हो भी नहीं हुआसकता ओ मेरे पिता !
</poem>