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मजरूह सुल्तानपुरी

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* [[मसर्रतों को ये अहले-हवस न खो देते / मजरूह सुल्तानपुरी]]
* [[पहले सौ बार इधर और उधर देखा है / मजरूह सुल्तानपुरी]]
आ ही जाएगी सहर मतला-ए-इम्काँ तो खुला
आह-ए-जाँ-सोज़ की महरूमी-ए-तासीर न देख
अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें
डरा के मौज ओ तलातुम से हम-नशीनों को
दुश्मन की दोस्ती है अब अहल-ए-वतन के साथ
गो रात मेरी सुब्ह की महरम तो नहीं है
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़्यादा
हमें शुऊर-ए-जुनूँ है कि जिस चमन में रहे
जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया
जला के मशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जलवा-ए-गुल का सबब दीदा-ए-तर है कि नहीं
ख़ंजर की तरह बू-ए-सुमन तेज़ बहुत है
मसर्रतों को ये अहल-ए-हवस न खो देते
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
निगाह-ए-साक़ी-ए-ना-मेहर-बाँ ये क्या जाने
सिखाएँ दस्त-ए-तलब को अदा-ए-बे-बाकी
सू-ए-मक़तल कि पए सैर-ए-चमन जाते हैं
तक़दीर का शिकवा बे-मानी जीना ही तुझे मंज़ूर नहीं
वो तो गया ये दीदा-ए-ख़ूँ-बार देखिए
ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें
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