हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी.
कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,
संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,
सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा.
जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.
सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?
'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?
दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,
बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?
'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?
समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?
हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,
है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?
चींताकुल गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं.तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे? यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी.तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं. लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है. क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू, इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?' चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से.
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.
उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.
दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.
राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.
मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.
या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.
सुत की शोभा को देख मोद में फूली,