|रचनाकार=गजेन्द्र ठाकुर
|संग्रह=
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<poem>
मुदा मनुक्ख ताकि अछि लेने
एहि अनन्तक परिधि
परिधिकेँ परिधिके नापि अछि लेने मनुक्ख।
ई आकाश छद्मक तँ नहि अछि विस्तार,
तावत एकर असीमतापर तँ करहि पड़त विश्वास!
स्वरकेँ स्वरके देखबाकचित्रकेँ चित्रके सुनबाकसागरकेँ सागरके नाँघबाक।
समय-काल-देशक गणनाक।