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धूप / शमशेर बहादुर सिंह

5 bytes removed, 08:45, 1 जुलाई 2013
हवा में मक्‍खन-सा घोलती है
 
नींद-भरी आलस की भोर का
कुंज गदराया है
अभी अनजान मानो
 
नावें उछलती हैं लहरों में बादलों के
हलकी हलकी मगन मगन
बेमानी तानें-सी आप ही आप गुनगुनाता है
 
चुंबन की मीठी पुचकारियाँ
खिला रहीं कलियों को फूलों को हँसा रहीं
 
घाँसों को गुदगुदियों न्हिला रहीं
  नाच हैं खिल् खिल् खिल्
सुगंधियाँ
 
क्‍यों न उसाँसें भरे
धरती का हिया
 
धूप की चुस्कियाँ
पिये जाय, आँख मीच, सोनीली माटी
 
कन्-कन् जिये जाय
 
थप्-थप् केले के पातों पर हातों से
हाथ् दिये जाय
थप थप्...
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