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त्रिलोचन / बोधिसत्व

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त्रिलोचन{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}
‘सुनने में आया, हैं बीमार त्रिलोचन<br>
हरिद्वार में पड़े हैं, अपने बेटे के पास<br>
जिनका कविता-फ़विता से कोई<br>
लेना-देना नहीं है। टूट गई है जीभ, जो मन सो<br>
बकते से हैं, जसम-फ़सम, जलेस-प्रलेस सब<br>
सकते में हैं’<br>
खबर सुनाई जिसने कवि-अध्यापक वह
इलाहाबादखबर सुनाई जिसने कवि-अवध में चर्चा है व्यापक कहअध्यापक वह<br>
मौन हुआ, मैं रहा देखता उसका मुंह
रात बहुत थी काली, जम्हाता अंगुलीइलाहाबाद-अवध में चर्चा है व्यापक कह<br>
पटकाता वह फिर बोला –
‘सूतो अब तुम भी’मौन हुआ, मैं रहा देखता उसका मुंह<br>
मैंने मन ही मन कहा –
‘त्रिलोचन घनी छांव वाला तरुवर हैरात बहुत थी काली, जम्हाता अंगुली<br>
मूतो अब तुम भी’पटकाता वह फिर बोला –<br>
उस पर विचार के नाम पर‘सूतो अब तुम भी’<br>
दुर-दुर करो, कहो वाम परमैंने मन ही मन कहा –<br>
धब्बा ‘त्रिलोचन घनी छांव वाला तरुवर है त्रिलोचन<br>
कहो त्रिलोचन कलंक है।मूतो अब तुम भी’<br>
भूल जाओ कि वह जनपद का कवि हैउस पर विचार के नाम पर<br>
गूंज रहा है उसके स्वर से दिगदुर-दिगंत है।दुर करो, कहो वाम पर<br>
धब्बा है त्रिलोचन<br> कहो त्रिलोचन कलंक है।<br> भूल जाओ कि वह जनपद का कवि है<br> गूंज रहा है उसके स्वर से दिग-दिगंत है।<br><br>
मरने दो उसको दूर देश में पतझड़ में<br>
तुम सब चहको भड़ुओं तुम्हारा तो<br>
हर दिन बसंत है।<br>
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