{{KKCatKavita}}
<poem>
'''गांव का महाजन'''
वह समाज के त्रस्त क्षेत्र का मस्त महाजन,
गौरव के गोबर -गणेश सा मारे आसन!
नारिकेल-से सिर पर बांधे धर्म -मुरैठा,
ग्राम -बधुटी की गौरी-गोदी पर बैठा,!
नागमुखी पैत्रक संपत्ति की थैली खोले,
जीभ निकाले, बात बनाता करूणा घोले,!
ब्याज-स्तुति से बांट रहा है रूपया-पैसा,
सदियों पहले से होता आया है ऐसा!!
सूड़ लपेटे है कर्जे की ग्रामीणों को,
मुक्ति अभी तक नहीं मिली है इन दीनो को,इन दीनो के ऋण का रोकड़-कांड बड़ा है,अब भी किंतु अछूता शोषण-कांड पड़ा है।!
इन दीनों के ऋण का रोकड़-कांड बड़ा है,
अब भी किंतु अछूता शोषण-कांड पड़ा है।
</poem>