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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=सुबह की दस्तक / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
मुसल्सल दिल को तरसाना निहायत बेवक़ूफ़ी है
किसी से इश्क़ फ़रमाना निहायत बेवकूफ़ी है

वो इस्तेमाल करते हैं, हम इस्तेमाल होते हैं
बड़े लोगों से याराना निहायत बेवकूफ़ी है

जो पीना है पियो खुलकर नहीं तो तर्के-मय कर लो
ये छुप-छुप मैकदे जाना निहायत बेवकूफ़ी है

मेरे दिल मान जा, बरबाद होने पर तुला है क्यों
हसीनों पर तरस खाना निहायत बेवकूफ़ी है

जो बोया था वही काटा, अब इसमें कैसी अनहोनी
बुरा क़िस्मत को ठहराना निहायत बेवकूफ़ी है

मदद कुछ कीजिए रखते हैं हमदर्दी अगर हमसे
ये बातें देके बहलाना निहायत बेवकूफ़ी है

कभी तो अक़्ल को भी दीजिए ज़हमत ‘अकेला’ जी
फ़क़त भावों में बह जाना निहायत बेवकूफ़ी है
</poem>
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