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09:37, 15 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
| रचनाकार= इरशाद खान सिकंदर
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<poem>
घर की दहलीज़ अंधेरों से सजा देती है
शाम जलते हुए सूरज को बुझा देती है
मैं भी कुछ दूर तलक जाके ठहर जाता हूँ
तू भी हँसते हुए बच्चे को रुला देती है
ज़ख़्म जब तुमने दिये हों तो भले लगते हैं
चोट जब दिल पे लगी हो तो मज़ा देती है
दिन तो पलकों पे कई ख़्वाब सजा देता है
रात आँखों को समंदर का पता देती है
कहीं मिल जाय ‘सिकंदर’ तो ये कहना उससे
घर की चौखट तुझे दिन रात सदा देती है
</poem>