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प्रेम / नन्दकिशोर नवल
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07:00, 20 अगस्त 2013
मेरी चेतना का क्षितिज परिधान बदल रहा है,
मेरे मानसलोक में एक अपर लोक से किरणें आ रही हैं
कुआ
क्या
भीतर की पपड़ियाँ तोड़कर
तुम निकल रहे हो,
प्रेम ?
</poem>
अनिल जनविजय
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