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रसोई की पनाह / रति सक्सेना

18 bytes added, 13:03, 29 अगस्त 2013
|रचनाकार=रति सक्सेना
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जब भी मेरा आसमान
 
मेरी हथेली में भिंच
 
चिपचिपाने लगता है
 
मेरा आसपास
 
अनजाना बन मंडराने लगता है
 
मैं भागती हूँ
 
रसोई की पनाह में
 
कट-कट कटती जाती हैं
 
लौकी, गाजर, भिंडियाँ
 
बिना किसी शिकायत के
 
फिर चढ़ जाती हैं आग पर
 
मेरी ऐवज
 
मैं फिर से तैयार हो जाती हूँ
 
परोसी जाने के लिए
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