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|रचनाकार=ओमप्रकाश पंडित ‘ओम’
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<poem>बन्धन हई बड़का बंधन
करके देखीं रउओ मंथन

बिन डुबले रउआ का पायेब
बइठब तब रह जाएब ठनठन

जे अगुताई सभ से जाई
रह जाई अपने में ढ़नढ़न

अन्तर आइल मत सहमत में
अझुराइल आपस में जन-जन

मजगर जे बूझल भरमन के
ओकरा ना केहू से अनबन

मनई जे मनई ना जीये
मानवता से भर दे कनकन
</poem>
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