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22:16, 20 अक्टूबर 2013 <poem>प्रिय करो तुम याद स्वर्णिम पल कभी था बहुत सुंदर
व्यक्त था जो मौन, नयनों से बहा था नेह बन कर।
खिल उठा था फूल कोई भोर की इक किरण छूकर,
वह भ्रमर मदमस्त हो झूमा सहर्ष बन्दी बना कब?
प्रेम-धारा डूब सागर में स्पवरिचय पा गई फिर,
तुम असीम में खो गई मैं, तुच्छ, कोई अर्घ्य बन कर
जल रही अब बन शिखा मैं, वक्ष दीप का चूमती हूँ
बन तुम्हारी आत्मा मैं स्वयं काया ढूँढती हूँ।
धार-अमृत बह रही है, चिर तपित बंजर धरा पर
हो गई अब प्रेम से सींचा हुआ मरुद्वीप, प्रियवर!
हाथ की पगडंडियों पर कब तुम्हारे चल पड़ी थी
तुम सितारों की लड़ी बन मांग में थे सहज सँवरे,
वेदना से सिक्त रातें, अश्रु की हर धार प्रियतम
जो हमारी आत्म की गहराई में उमग उतरे,
बँध के मन के पाश से पर, मुक्त हो कर खेलती हूँ
प्रीत में जल कर कपू्री गंध जैसी फैलती हूँ
छवि तुम्हारी खेलती है, हर प्रहर जो स्वप्न बन कर
हृदय-स्पंदन में बसे तुम प्राण बन, हे प्रिय, निरंतर...</poem>