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|संग्रह=प्रेम व श्रृंगार रस की रचनाएँ / महेन्द्र मिश्र }}
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<poem> सोरहो सिंगार करि चलु रे सहेलिया
से देखि आई राम चारो भइया हो लाल।
कलंगी सोहावन लागे जामा केसरिया
से साँवरी सुरतिया मनवाँ मोहेला हो लाल।
सोने का थाली में आरती उतरनीं
से केशर के चन्दन लगाई हो लाल।
तबला सारंगी बाजे खंजरी सितारा
से नीको बड़ी लागे सहनइया हो लाल।
अइसन दुलहवा हम कबहीं ना देखनीं
से हँसि-हँसि मोह अंगनइया हो लाल।
हिलि-मिली गाऊ सखिया राम के रिझाऊ
से कब ले दू अइहें ससुरिया हो लाल।
कहत महेन्दर आजु चारों हुहलवा के
हँसि-हँसि गरवा लगइहो हो लाल।
</poem>
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