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06:23, 26 अक्टूबर 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरकीरत हकीर
}}
{{KKCatNazm}}
<poem>
(इमरोज़ के लिए )
मैं कभी …
आईने के सामने नहीं खड़ी होती
वहाँ कभी 'हीर' दिखती ही नहीं
वहाँ तो 'हक़ीर' दिखती है .
तूने मुझे हक़ीर से हीर बना तो दिया
पर मैं अपने अन्दर की
मरी हुई मुहब्बत
कभी जगा न सकी ….
</poem>
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