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07:55, 26 अक्टूबर 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरकीरत हकीर
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{{KKCatNazm}}
<poem>वह मेरे जिस्म से खेला
होंठों को निचोड़ा
और छाती पर सर रख सो गया …
किसी को खबर भी न हुई
कब मेरी पलकों पर ठहरी हुई बूंदें
बर्फ में तब्दील हो गईं …
उस ने टांग ली थी
मेरे जिस्म की खूंटी से
अपनी दिन भर की थकान
पर मैं कैसे झाड़ू हुई
कैसे बर्तन बनी …
और कैसे फ्रिज बन उसका बिस्तर बनी
किसी को खबर भी न हुई …
लो मैंने बिछा दी है
तुम्हारे लिए अपनी देह
घर से लेकर आँगन तक
रसोई से लेकर बिस्तर तक
बंद कर अलमारी में
अपनी सारी इच्छाएं ….
</poem>
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