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01:48, 31 अक्टूबर 2013 <poem>कौन किसे कब रोक सका है।
दर्प पतन का प्रथम घोष है,
गिरने से पहले का इंगित,
भाग्य ने जिस जगह बिठाया
छिन जायेगा सब कुछ संचित,
दो क्षण के इस जीवन में क्या
द्वेष-द्वंद को सींच रहे हो,
जिसने ठान लिया होगा फिर
कौन उसे तब टोक सका है।
बड़े नाम हो, तुच्छ काम से
मान तुम्हारा कम होता है,
गुरु-महिमा की बातें झूठी
सच पर भी अब भ्रम होता है,
बाधा बन कर तन सकते हो
चाहो ज्वाला बन सकते हो
लेकिन याद रखो पत्थर को
कौन आग में झोंक सका है।
कौन किसे कब रोक सका है।</poem>