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साँचा:KKPoemOfTheWeek

269 bytes removed, 19:55, 27 दिसम्बर 2013
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जब वो मस्जिद में अदा करते हैंहमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी</div>
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रचनाकार: [[इमाम बख़्श 'नासिख']द्विजेन्द्र "द्विज"]
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जब वो मस्जिद में अदा करते इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैंसब नमाज़ अपनी क़ज़ा करते हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं
जिन की रफ़्तार के पामाल हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं हमख़ललवही आँखों में फिरा करते वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं
तेरे घर में जो नहीं जाते क़दमहमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या मेरे तलुवे जला करते होगीहर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं
कहीं दिखे ही नहीं होते हैं फ़रामोश सनमगाँवों में वो पेड़ हमेंख़ाक हम याद-ए-ख़ुदा करते बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं
गो कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं पूछते हरगिज़ वो मिजाज़हम तो कहते हैं दुआ करते हैंजो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है
मौसम-ए-गुल में बशर हैं माज़ूरगुल तलक चाक क़बा करते हैं शाद हैं बाग़-ए-फ़ना में वो गुलसारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ कीअपनी हस्ती पे हंसा करते हैं चमन-ए-दहर में महबूबों सेक्या कि जिनके साये ही अशाफ़ वफ़ा करते हैं गर ख़ज़ां आती है फूलों के साथपर अना दिल के उड़ा करते हैं आज वो तेग़-ए-निगह से ‘नासिख़’किश्वर-एदम-दिल को कटा करते ख़म पिघाल देते हैं
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