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<poem>
ग़म बिछड़ने का नयन सहने लगे
ख़ुशनुमा मंज़र ख़फ़ा रहने लगे

जिस्म की मजबूरियां रौशन हुर्इं
दूरियों की धूप तन सहने लगे

हौसलों के शहर बे मंज़र हुये
आस्थाओं के महल ढहने लगे

मुझ को भाती है गर्इ रूत की महक
उसको अच्छे ख़्रवाब के गहने लगे

आ गया स्पर्श का मौसम 'कंवल’
अनसुने किस्से बदन कहने लगे
</poem>
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