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12:14, 4 जनवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
मुक़द्दर का सूरज घटाओं में था मेरा
हाले-ख़स्ताभ2 ख़लाओं में था
सभी हंस रहे थे,मुझे देखकर
बिखरता हुआ मैं हवाओं में था
शिकन की तहें मेरे माथे पे थीं
कि दरपन भी ना आशनाओं में था
मै सुक़रात था चीख़ता किस तरह
सकूते-अजब5 भी दिशाओं में था
मेरे होंटों पर थी लबों की तपन
मुझे चैन ज़ुल्फ़ों की छावों में था
कोर्इ शहर में था परेशां बहुत
कोर्इ शख्स बेचैन गांवों में था
शबो-रोज़6 बिखरी हुर्इ ज़िन्दगी
'कंवल’ इससे बेहतर गुफाओं में था
1 भाग्य, 2. दुखी, 3. वृतांत,
4. अनभिज्ञ, 5. अहंकारकीचुप्पी,
6. रातदिन.
</poem>