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12:55, 4 जनवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा काट रहे हैं
हम आज भी इक दरिया के दोपाट रहे हैं
इन शहर की गलियों मे कहां गांव के सावन
फ़व्वारों के मंज़र मेरा सर चाट रहे हैं
मौसम के बदलते ही बदल जायेंगे हम तुम
गो सच है अभी रंजो-खुशी बांट रहे हैं
अब तक न मिली नौकरी कोर्इ भी 'कंवल’को
हाथों की लकीरों के अजब ठाट रहे हैं
</poem>
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