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05:15, 25 जनवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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|संग्रह=
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<poem>
है बात जब कि जलती फ़ज़ा1 में कोर्इ चले
बरसात में तो नाला भी बनकर नदी चले
औरों को हमने खंदालबी2 बांट दी मगर
ख़ुद अपनी चश्मे-शौक़ मेले कर नमी चले
इक जाम और पीले सरे-राहे-ज़िन्दगी4
ठहरो ज़रा रफ़ीक़ो5 कि हम भी अभी चले
तुमसे बिछड़के मैं न कभी चैन पा सका
तुम क्यों मुझे भुला के मेरी ज़िन्दगी चले
सूरज की धूप से कभी सूखी नहीं नदी
फिर क्यों न ग़म में हंसते हुए आदमी चले
ये बेबसी कि ज़ख़्म दिखाना भी है गुनाह
अच्छा चलो ये साज़िशे-अगियार6 भी चले
बिखरी हुर्इ हयात7 समेटूंगा मै 'कंवल’
शायद इसी से कारगहे–ज़िन्दगी चले
1. वातावरण 2. होटों की हंसी 3. प्रेम नयन 4. जीवन की राह में
5. मित्रों 6. शत्रुओं का षडयंत्र 7. जीवन।
</poem>
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