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05:42, 25 जनवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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पत्थरों को आइना दिखला रहा है कोर्इ शख़्स
अक्स अपना देखकर घबरा रहा है कोर्इ शख़्स
सर पे है सूरज, हवायें गर्म है, राहें ख़मोश
जल रहा है और चलता जा रहा है कोर्इ शख़्स
बन संवर कर मुंतज़िर1 हैं मंदिरों मे देवियां
सुबह की किरनें बिखेरे आ रहा है कोर्इ शख़्स
खुश्क लब कांटो का उसको आ गया शायद खयाल
आबला-पा2 सू-ए-सहरा जा रहा है कोर्इ शख्स
ख्वाहिशों की चिलचिलाती धूप में प्यासा हूँ मैं
जामे-वस्ले-यार कब से पा रहा है कोर्इ शख्स
दोहरे शादाब पत्तों का सिमटकर टूटना
भींचकर मुझको सुनाये जा रहा है कोर्इ शख्स
तुम मिलन की रात का मंज़र न खैंचो ऐ 'कंवल’
शर्म से खुद में सिमटता जा रहा है कोर्इ शख़्स
1. प्रतीक्षारत, आशान्वित 2. पांव का छाला
</poem>