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13:34, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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|संग्रह=
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<poem>
पैरों में मेरे फ़र्ज़ की ज़ंजीर पड़ी है
ए जज़्ब-ए-दिल1 ठहर बहुत सख्त़ घड़ी है
अब जन्मों के रिश्ते भी कहीं टूट न जायें
यूं अपनी वफ़ा फ़र्ज़ से इस बार लड़ी है
ज़ुल्फ़ों की घटा, आंख के खुम2, प्यार का बादा3
आग़ोश4 में आ जाओ लिये रात बड़ी है .
तदबीर5 से जाग उठती है सोर्इ हुर्इ तक़दीर
तदबीर मुक़द्दर की वो ख़ामोश कड़ी है
.
इक पल की खुशी को हैं तरसते कर्इ युग से
कहते है 'कंवल’ उम्र-ग़मे-यार बड़ी है
1 मनकीभावना 2 . शराबकामटका 3. मदिरा
4. गोद 5. उपाय, युक्ति।
</poem>