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15:17, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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<poem>
हर दम दिल के आंगन मे ली ग़म ने ही अंगड़ार्इ
भूले से भी गूंज सकी न खुशियों की शहनार्इ
रंग रंगीले दुनियावालों की उफ़रे नादानी
बनते है सब मन के बदले तन के ही शैदार्इ
हुस्न को पूजा, चाहा, सराहा, हर दम इस दुनिया ने
किस युग में इस इश्क़ को जगने सूली नहीं चढ़ार्इ
तन के काले बंदे नंगे फ़ुटपाथों पर सोये
मन के काले लोगों को गद्दों पर नींद न आर्इ
खुशियों के हंगामे तो चलते ही थक जाते हैं
साथ 'कंवल’ का देती है ग़म मे डूबी तन्हार्इ
</poem>