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15:23, 8 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रमेश 'कँवल'
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तुम ही कहो बढ़ जाती है क्यों बरसातों में दिल की जलन
ढंडी फुहारों से लगती है, तन मन में क्यों और अगन
तुम क्या जानो बरसे हैं जब आवारा बादल 'सावन’
बढ़ जाती है कितनी तुमसे मिलने की तड़पन तरसन
भीग रही है कोर्इ कुंवारी छत परइन बौछारों में
कोर्इ दिवाना प्रीतम के दरशन में है यूं आज मगन
आह मचलने लगते हैं अरमान दिले-आवारा में
आता है जब याद तेरा भीगा भीगा शफ्फ़ाफ़ बदन
तुम हो कहां महबूब मेरे सावन की नशीली रातों में
देख 'कंवल’ बेबस हो कर ढूढ़े हैं तुम्हें दरपन दरपन
</poem>