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08:25, 26 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=नवीन सी. चतुर्वेदी
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<poem>
सब की सुनता हूँ बस अपनी ही सदा काटूँ हूँ
तुझको हमराज़ बनाने की सज़ा काटूँ हूँ
दर्द ने ही तो दिये हैं मुझे तुम जैसे हबीब
और आमद के लिए ग़म का सिरा काटूँ हूँ
है ख़लिश इतनी अभी उड़ के पहुँचना है वहाँ
बस इसी धुन में शबरोज़ हवा काटूँ हूँ
ये ज़मीं तेरी है ये मेरी ये उन लोगों की
ऐसा लगता है कि जैसे मैं ख़ला काटूँ हूँ
एक भी ज़ख्म छुपाया न गया तुम से ‘नवीन’
हार कर अपने कलेज़े की रिदा काटूँ हूँ</poem>
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