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10:37, 26 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=धीरेन्द्र अस्थाना
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<poem>मेरी तल्खियाँ इतनी नागवार तो नहीं कि,
तुझे मेरी सूरत से भी चुभन होने लगी ।
मैं तो जिन्दा हूँ तुझे अपना भर मानकर,
तेरे बिन सांसों को भी घुटन होने लगी ।
काश बुझ गयी होती ये तमन्ना-ए-दिल,
हर इक आरज़ू को भी जलन होने लगी ।
गजल कोई उपजे तो भला किस कदर,
जब लफ्ज-लफ्ज को भी थकन होने लगी
</poem>