{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
}}
{{KKPustak
|चित्र=Bhaj-govindam-mridul-kirti.jpg
|नाम=भज गोविन्दम
|रचनाकार=[[मृदुल कीर्ति]]
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|विषय=आदि गुरु श्री शंकराचार्य विरचित ग्रंथ
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|पृष्ठ=
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|विविध=संस्कृत से हिन्दी में काव्यानुवाद
}}
<poem>
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥ १ ॥
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भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते!
भज गोविन्दम भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥१॥
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मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम् ।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ २ ॥
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माया जोड़े, काया तोड़े, ढेर लगा कब सुख मिलते,
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥२॥
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नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्वा मागामोहावेशम् ।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥ ३ ॥
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नारी तन, मोहित मन मोहा, अंदर माँस नहीं दिखते,
भज गोविन्दम , भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते ॥३॥
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नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥ ४ ॥
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कमल पात, जल बिंदु न रुकते, अस्थिर, दूजे पल बहते,
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥४॥
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यावद्वित्तोपार्जन सक्तः स्तावन्निज परिवारो रक्तः ।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥ ५ ॥
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धन अर्जन की क्षमता जबतक, घर परिवार सलग रहते,
भज गोविन्दम, भज गोविन्दम, गोविन्दम भज मूढ़ मते! ॥५॥
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यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥ ६ ॥
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जब तक प्राण देह में रहते, घर परिवार लिपट रहते,