माता ! एक कलख है मन में, अंत समय में देख न पाया <br>
आत्मकीर के उड़ जाने पर बची शून्य पिंजर सी काया ।<br>
और देख कर भी क्या करता? सब विन जहां पर हारे,<br>उस देहली को पार कर गयी, ठिठके हैं हम ’मरण-दुआरे’ । <br>जीवन में कितने दु:ख झेले, तुमने कैसे जनम बिताया ! <br>नहीं एक सिसकी भी निकली, रस दे कर विष को अपनाया ? <br>आंसू पिये, हास ही केवल हमें दिया, तुम धन्य विधात्री ! <br>मेरे प्रबल, अदम्य, जुझारू प्राणपिंड की तुम निर्मात्री ।<br><br>कितने कष्ट सहे बचपन से, दैन्य, आप्तजनविरह, कसाले<br>पर कब इस जन को वह झुलसन लग पायी, ओ स्वर्ण-ज्वाले !<br>सभी पूत हो गया स्पर्श पा तेरा, कल्मष सभी जल गया,<br>मेधा का यह स्फीत भाव औ’ अहंकार सब तभी जल गया,<br>पंचतत्त्व का चोला बदला, पंचतत्त्व में पुन: मिल गया,<br>मुझे याद आते हैं वे दिन, जब तुम ने की थी परिचर्या,<br>शैशव में, उस रूग्ण दशा में तेरी वह चिंतातुर चर्या !<br><br>मैं जो कुछ हूं, आज तुम्हारी ही आशीष, प्रसादी, मूर्ता,<br>