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नाक / हरिऔध

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|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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|संग्रह=चोखे चौपदे / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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<poem>
हो उसे मल से भरा रखते न कम।

यह तुमारी है बड़ी ही नटखटी।

तो न बेड़ा पार होगा और से।

नाक पूरे से न जो पूरी पटी।

जो भरे को ही रहे भरते सदा।

वे बहुत भरमे छके बेढंग ढहे।

नाक तुम को क्यों किसी ने मल दिया।

जब कि मालामाल मल से तुम रहे।

तू सुधार परवाह वु+छ मल की न कर।

पाप के तुझ को नहीं कूरे मिले।

लोग उबरे एक पूरे के मिले।

हैं तुझे तो नाक! दो पूरे मिले।

वह कतर दी गई सितम करके।

पर न सहमी न तो हिली डोली।

नाक तो बोलती बहुत ही थी।

बेबसी देख वु+छ नहीं बोली।

दुख बड़े जिसके लिए सहने पड़ें।

दें किसी को भी न वे गहने दई।

तब अगर बेसर मिली तो क्या मिली।

नाक जब तू बेतरह बेधी गई।

और के हित हैं कतर देते तुझे।

और वह फल को वु+तुर करके खिली।

ठोर सूगे की तुझे वै+से कहें।

नाक जब न कठोर उतनी तु मिली।

जो न उसके ढकोसले होते।

तो कभी तू न छिद गई होती।

मान ले बात, कर न मनमानी।

मत पहन नाक मान हित मोती।

सूँघने का कमाल होते भी।

काम अपने न कर सके पूरे।

बस वु+संग में सुबास से न बसे।

नाक के मल भरे हुए पूरे।

ताल में क्यों भरा न हो कीचड़।

पर वहीं है कमल-कली खिलती।

नाक कब तू रही न मलवाली।

है तुम्हीं से मगर महँक मिलती।
</poem>
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