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सुधार की बातें / हरिऔध

18 bytes removed, 05:12, 20 मार्च 2014
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<poem>
तब भला क्या सुधार सकेंगे हम। 
जब कि सुनते सुधार नाम जले।
 
देखने के समय कसर अपनी।
 छा गया जब ऍंधोरा अँधेरा आँख तले।
अनसुनी कर सुधार की बातें।
 वू+ढ़ वै+से कूढ़ कैसे भला कहलवा लें। 
खोट रह जायगी उसे न सुने।
 
कान का खोंट हम निकलवा लें।
जो जियें जाति को निहार जियें।
 
जो मरें जाति को उबार मरें।
 
है यही तो सुधार की बातें।
 
कान क्यों बार बार बन्द करें।
पार हो नाव डूबती जिस से।
 
जब नहीं ब्योंत वे बता देते।
 
तब सुने नाम ही सुधारों का।
 
लोग क्यों जीभ हैं दबा लेते।
हर तरह की बिगाड़ की बातें।
 
हैं दिलों में सुधार बन पैठी।
 
सब घरों में खड़े बखेड़े हैं।
 
फूट है पाँव तोड़ कर बैठी।
</poem>
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