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लानतान / हरिऔध

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<poem>
जब कि कस ली पत गँवाने पर कमर। 
पर उतरने का रहा तब कौन डर।
 
बेपरद क्यों हों न परदेवालियाँ।
 
पड़ गया परदा हमारी आँख पर।
नित कचूमर है धारम धरम का कढ़ रहा। 
है भली करनी कलपती दुख भरी।
 
जो गई हैं बाहरी आँखें बिगड़।
 
तो गईं क्यों फूट आँखें भीतरी।
क्यों सुनोगे मरे या जाति जिये।
 
बस तुम्हें खाना पीना सोना है।
 
सच है अंधो के सामने रोना।
 
अपने आप अपनी आँख खोना है।
देस का दुख न देखनेवाले।
 
देख पाये कहीं न तुम जैसे।
 
आँख ऊँची न रख सके जब तो।
आँख ऊँची भला रहे कैसे।
आँख ऊँची भला रहे वै+से। वु+छ कुछ न सूझा, है न अब भी सूझता। 
दाम देते हैं हमीं तो राख का।
 
खोल देखो आँख हम सा है कहाँ।
 
गाँठ का पूरा व अंधा आँख का।
पाँव होते पड़े रहे पीछे।
 
हाथ होते न कर सके धंधे।
 
सूझती हैं भलाइयाँ न हमें।
 आँख होते बने रहे अंधो।अंधे।
बँधा सकेंगे न एक डोरे में।
 तोड़ कर के रहा सहा बंधान।बंधन।
घर बसा कब उजाड़ कर के घर।
 
जा सका आज भी न अंधापन।
डालते आज भी नहीं बनता।
 बोझ से बेतरह छिले कंधो।कंधे।
है हमें देख भाल का दावा।
 सच तो यों है कि हैं बड़े अंधो।अंधे।
वह ललाई रही नहीं मुँह की।
 
है सियाही निखर रही छन छन।
 रंग पहचान तब सकें वै+से।कैसे।
रंग लाता है जब कि अंधापन।
दिन ब दिन हैं बिगड़ रहे लेकिन।
 हैं वही काम औ वही धांधो।धंधे।
क्यों हरा ही हरा न सूझेगा।
जब कि सावन के आप हैं अंधे।
जब कि सावन के आप हैं अंधो। सुन जिसे धाँधाली धाँधली दहल उठती। 
और जाते दबक दिखावे सब।
 
जब बजाये बजे न वे बाजे।
 
हम रहे गाल क्या बजाते तब।
पूछता बात तक नहीं कोई।
 
पर नहीं तार डींग की टूटा।
 
ठोकरे हैं गली गली खाते।
 
गाल का मारना नहीं छूटा।
लोग अपने हकों पदों को भी।
 
वीरता के बिना नहीं पाते।
 
जब गई बीरता बिदा हो तब।
 
क्या रहे बार बार मुँह बाते।
पाँव पर अपने खड़े होते नहीं।
 धान धन लुटा कर दिन ब दिन हैं चूकते। 
चाटते हैं जब पराया थूक हम।
लोग तब कैसे न मुँह पर थूकते।
लोग तब वै+से न मुँह पर थूकते। बेटियाँ बेंच बेच बेंच पेट पला। 
हैं लुटीं हाथ से न राँड़ें कम।
 
हैं छिपाते छिपी हुई चालें।
 
पर कभी मुँह नहीं छिपाते हम।
क्यों बचाये न आँख वह, जिसने।
 
जाति को बेंच पा लिये पैसे।
 
लग गया जब कलौंस ही मुँह में।
 तब भला मुँह दिखा सकें वै+से।कैसे।
कर दिखाते भलाइयाँ तब क्या।
 
जब भला ठान भी नहीं ठनता।
 
तब भला भाग खोल देते क्या।
 
जब कि मुँह खोलते नहीं बनता।
है न पाता पनाह अपनापन।
 
मेल को धूल में मिला डाला।
 
जाति को डाल काल के मुँह में।
 
बेतरह मुँह किया गया काला।
क्या हँसी खेल है सँभल जाना।
 
तुम कहीं बैठ कर हँसो खेलो।
 है तुमारा तुम्हारा न मुँह कि सँभलोगे। 
मुँह तनिक देख आइने में लो।
नौजवानों की उमंगों को वु+चल।कुचल।
तुम गये हो आँख में बेढब समा।
 
जो चले हो जाति का मुँह मूँदने।
दाँत तालू में तु्म्हारे तो जमा।
दाँत तालू में तुमारे तो जमा। हम रहेंगे बेसुधो बेसुधे कब तक बने। 
ओस से भी प्यास जाती है कहीं।
 
क्यों न तलवों से हमें अब भी लगी।
 
दिन रहे तालू उठाने के नहीं।
खुल गया भेद सब बिना खोले।
 
आँख बतलाइये खुलेगी कब।
 
भर लबालब गया सितम-प्याला।
 
खुल हमारा सका न अब भी लब।
जब कि था चाहिए नहीं दबना।
 
तब भला किस लिए गये दब हम।
 
जब कि था चाहिए उसे खुलना।
 
तब हुआ बन्द क्यों हमारा लब।
क्या न दो बात कह सकें हम।
 क्यों हमें है बिपत्तिा बिपत्ति ने घेरा। 
कौन बेजान है भला हम सा।
 
जी हिला पर न लब हिला मेरा।
तो कहाँ धुन हमें लगी सच्ची।
 
जातिहित जो सही न आँच कड़ी।
 
मुँह हमारा अगर नहीं सूखा।
 
होठ पर जो पड़ी नहीं पपड़ी।
बैरियों को न चाट जब पाया।
 
तब रहे होठ चाटते हम क्या।
 
जब सके काट ही न दुख अपना।
 
तब रहे होठ काटते हम क्या।
जाति को राह पर लगाने की।
 
काम की बात सैकड़ों सिखला।
 
तब भला क्या निकालते सूरत।
 
जब कि सूरत सके नहीं दिखला।
जाति जिस से उठे हिले डोले।
 
पत्थरों की न जाय बन मूरत।
 
तो न सूरत दिखाइये हम को।
 
जो न इस की बताइये सूरत।
दूर बेचारपन करें सारा।
 
मत बिचारा करें महूरत ही।
 
क्या नतीजा सवाल का होगा।
 
साहबो है सवाल सूरत ही।
तो मरें डूब नाम सुन रन का।
 
है हमें आ गई अगर जूड़ी।
 
जम लड़ें, दें पछाड़ जम को भी।
 
लें पहन हाथ में न हम चूड़ी।
हो गई क्यों न तो कई टुकड़े।
 
किस लिए टूट वह नहीं जाती।
 
जाति के देख देख कर दुखड़े।
 है न छाती अगर धाड़क धड़क पाती।
छिन गया सरबस कलेजा छिल गया।
 
चौगुनी क्यों चोट लग पाती नहीं।
 
छटपटाते देख दुख से जाति को।
 क्यों छै टुकड़े हो गई छाती नहीं।
काठ हैं, जो जातिहित करते समय।
 
सेज आलस की हुई सूनी नहीं।
 
जो न चौगूनी उमंगें हो गईं।
 
हो गई छाती अगर दूनी नहीं।
बात तो जाति प्यार की सुन ली।
 पर रहा वह न दुख ऍंगेजे अँगेजे पर। 
जाति पर कब रखी गई पत खो।
 
हाथ रख कर कहें कलेजे पर।
चुन सकें तो चाहिए चुन लें उन्हें।
 
आज तक काँटे न कम हैं बो गये।
 आज भी क्यों है धाड़क धड़क खुलती नहीं। दिल धाड़कते धड़कते तो बहुत दिन हो गये।
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