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बूढ़े का ब्याह / हरिऔध

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<poem>
आप जो वे मर रहे हैं तो मरें। 
क्यों मुसीबत बेमुँही सिर मढ़ेंगे।
 
वे चेताये क्यों नहीं हैं चेतते।
 
जो चिता पर आज कल में चढ़ेंगे।
हो बड़े बूढ़े न गुड़ियों को ठगें।
 
पाउडर मुँह पर न अपने वे मलें।
 
ब्याह के रंगीन जामा को पहन।
 
बेइमानी का पहन जामा न लें।
छोकरी का ब्याह बूढ़े से हुए।
 
चोट जी में लग गई किसके नहीं।
 
किस लिए उस पर गड़ाये दाँत वह।
 
दाँत मुँह में एक भी जिसके नहीं।
जो कलेबा काल का है बन रहा।
 
वह बने खिलती कली का भौंर क्यों।
 
मौर सिर पर रख बनी का बन बना।
 
बेहयाओं का बने सिरमौर क्यों।
छाँह भी तो वह नहीं है काँड़ती।
 
क्योंकि बन सकता नहीं अब छैल तू।
 
ढीठ बूढ़े लाद बोझा लाड़ का।
 
क्यों बना अलबेलियों का बैल तू।
तब भला क्या फेर में छबि के पड़ा।
 
आँख से जब देख तू पाता नहीं।
 
तब छछूँदर क्या बना फिरता रहा।
 
जब छबीली छाँह छू पाता नहीं।
दिन ब दिन है सूखती ही जा रही।
 
हो गई बेजान बूढ़े की बहू।
 
जब कि दिल को थाम कर दूल्हा बने।
 
तब न लेवें चूस दुलहिन का लहू।
चाहतें कितनी बहुत वु+चली कुचली गईं। 
क्यों न टूटी टाँग बूढ़े टेक की।
 
एक दुनिया से उठा है चाहता।
 
और है उठती जवानी एक की।
राज की, साज बाज, सज धाज की।
 
है न वह दान मान की भूखी।
 
मूढ़ बूढ़े करें न मनमानी।
 
है जवानी जवान की भूखी।
निज लटू की देख कर सूरत लटी।
 
आँख में उस की उतरता है लहू।
 
आँख बूढ़े की भले ही तर बने।
 
देख रस की बेलि अलबेली बहू।
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