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03:21, 24 मार्च 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
डुबो कर ख़ून में लफ़्ज़ों को अंगारे बनाता हूँ
फिर अंगारों को दहका कर ग़ज़लपारे बनाता हूँ
मिरे हाथों के छाले फूल बन जाते हैं क़ाग़ज़ पर
मिरी आँखों से पूछो रात भर तारे बनाता हूँ
जिधर मिट्टी उड़ा दूँ आफ़्ताबे-ताज़ा पैदा हो
अभी बच्चों में हूँ साबुन के ग़ुब्बारे बनाता हूँ
ज़मीं पर ही रफ़ू का ढेर सारा काम बाक़ी है
ख़लाओम से न कह देना कि सय्यारे बनाता हूँ
ज़माना मुझसे बरहम है मिरा सर इस लिए ख़म है
कि मंदिर के कलश मस्जिद के मीनारे बनाता हूँ
मिरे बच्चे खड़े हैं, बाल्टी लेकर क़तारों में
कुँए तालाब नहरें और फ़व्वारे बनाता हूँ
</poem>