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धर्म / हरिऔध

24 bytes removed, 10:54, 24 मार्च 2014
<poem>
जोत फूटी गया अँधेरा टल।
 
हो गई सूझ-सूझ पाया धन।
 
दूर जन-आँख-मल हुआ जिस से।
 
धर्म है वह बड़ा बिमल अंजन।
रह सका पी जिसे जगत का रस।
 
रस - भरा वह अमोल प्याला है।
 
जल रहे जीव पा जिसे न जले।
 
धर्म - जल - सोत वह निराला है।
है सकल जीव को सुखी करता।
 
रस समय पर बरस बहुत न्यारा।
 
है भली नीति - चाँदनी जिस की।
 
धर्म है चाँद वह बड़ा प्यारा।
छाँह प्यारी सुहावने पत्तो।पत्ते।
डहडही डालियाँ तना औंधा।
 
हैं भले फूल फल भरे जिस में।
 
धर्म है वह हरा भरा पौधा।
तो न बनता सुहावना सोना।
 
औ बड़े काम का न कहलाता।
 
जीव - लोहा न लौहपन तजता।
 
धर्म - पारस न जो परस पाता।
ज्ञान - जल का सुहावना बादल।
 
प्रेम - रस का लुभावना प्याला।
 
है भले भाव - फूल का पौधा।
 
धर्म है भक्ति - बेलि का थाला।
जो कि निर्जीव को सजीव करें।
 
वह उन्हीं बूटियों - भरा बन है।
 
धर्म है जन समाज का जीवन।
 
जाति - हित के लिए सजीवन है।
धर्म पाला कलह कमल का है।
 
रंज मल के निमित्त है जल कल।
 
है पवन बेग बैर बादल का।
 
लाग की आग के लिए है जल।
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