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<poem>
कभी कभी लगता है
तुम्हारे मन में
उसी तरह उतरूँ
जैसे उतरती हैं वर्षा की बूंदें
रिस रिस कर ढूहों के अंतर्तल में

ट्रेन से गुजरते हुए
अक्सर ही लगा
हाथ बढ़ाकर छू दूंगी
तो हरहरा कर गिर पड़ेंगी ये ढूहें
भेद खोलतीं अपने मन का

मैं कई बार उन ढूहों में उतरी
तुम्हे खोजते हुए
लगता कितना सरल है तुम्हें पा जाना
पर अक्सर ही ढूहें
दीवार सी खड़ी हो जाती हैं
जिसके गिर्द इतने रास्ते निकलते हैं
कि पता ही नहीं चलता
किस राह पे मुड़े हो तुम
तुम्हारे कदमों के निशान कभी नहीं मिले
इन ढूहों में मुझे
पर हाँ
तुम्हारे गंध से व्याकुल रहती हैं
यहाँ की हवाएँ
घटाएँ

मैं उन दीवारों के पार जाना चाहती हूँ प्रिय!
</poem>
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