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मन का बंटवारा / विपिन चौधरी

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कहते हैं
पीछे के दिनों में जाना बुरा होता है
और उसकी रेत में देर तक कुछ खोजते रहना तो और भी बुरा
कोई बताये तो
पुराने दिनों की बहती धार की थाह पाये बिना
भविष्य की आँख में काजल कैसे लगाया जाये
अतीत की मुंडेर पर लगातार फड़फड़ाती डोर टूटी पतंग को देख
आज के ताजा पलों की हवा निकल जाती है
तब जीना एक हद तक हराम हो जाता है
अब हराम की जुगाली कोई कैसे करे
मेरे मन के अब दो पाँव हो गए हैं
एक पाँव अतीत की चहलकदमी करता है
और एक वर्तमान की धूल में सना रहता है
और दोनों मेरे सीने पर आच्छादित रहते हैं
भूत और वर्तमान की इस तनातनी से
भविष्य नाराज़ हो जाता है
मैं उसकी नाराजगी को
एक बच्चे की नाराजगी समझ
मधुर लोरी से उसका मन बहलाने का उपक्रम करती हूँ
ताकि मन का तीसरा बँटवारा होने से बच जाये
</poem>
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