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08:25, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विपिन चौधरी
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|संग्रह=
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<poem>
कहते है कि पीछे के दिनों में जाना बुरा होता है
और उसकी बालू रेत में देर तक कुछ खोजते रहना तो और भी बुरा
पर कोई बताये तो
पुराने दिनों के धार की
थाह पाये बिना
भविष्य की आँख में काज़ल कैसे लगाई जाये
एक ड़ोर -टूटी पतंग तब तब
अतीत की मुंडेर पर फड़फडाने लगती है
तो आज के ताज़ा पलों का जीना भी हराम हो जाता है
अब हराम की जुगाली कोई कैसे करे
मेरे मन के अब दो पाँव हो गए हैं
एक पाँव अतीत की चहलकदमी करता है
दूसरा वर्तमान की धूल में धूसरित
</poem>