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मेरा खूने-जिगर होने को है फिर / 'अना' क़ासमी
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09:00, 26 अप्रैल 2014
दिये का तेल सारा जल चुका है
बस इक रक्से-शरर
<ref>लौ का निरित्य</ref>
होने को है फिर
तख़य्युल
<ref>कल्पना</ref>
अब मुजस्सम
<ref>रूपधरना</ref>
हो चला है ‘अना’ तू बेहुनर होने को है फिर</poem>
{{KKMeaning}}
वीरेन्द्र खरे अकेला
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