[[Category:बांगला]]
<poem>
तब लज्जा का आवरण क्यों छीन लिया ?
द्वार तोडकर ह्रदय को बाहर खींच लाए;
रास्ते के बीच में आकर आखिर उसे छोड़ दोगे क्या ?
अपने भीतर मैं अपने को ही लेकर बैठी थी;
तुम्हारे सामने नग्न कर दिया था.
सखे, आज क्या बोलकर तुम मुंह फिर मुँह फिरा रहे हो?यहाँ तुम भूल से आये थे ! भूल से ही तुम प्रेम कर बैठे ?
और अब प्रेम टूट गया, इसी से चले जा रहे हो?
तुमने उसी आवरण को धूल में मिला दिया.
यह कितनी निदारुण भूल है !
विश्व-निलय के शत्-शत् प्राणों को छोड़कर
तुम क्यों इस अभागिनी के गोपन ह्रदय में आ पड़े ?
सोचकर देखो तुम मुझे कहाँ ले आये हो ?
उत्सुकता से क्रूर पृथ्वी की करोड़ों आँखें
नग्न कलंक की ओर देखती रहेंगी.
यदि, अन्त में, प्रेम भी लौटा लेना था,
तो मेरी लज्जा का हरण क्यों किया ?
इस विशाल विश्व में मुझे निर्वसन वेश में
अकेली क्यों छोड़ दिया ?
२४ मई १८८८