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जतन / सुनील गज्जाणी

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|संग्रह=मंडाण / नीरज दइया
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<Poem>लुगाई, सूखै कूवै मांय बार-बार
बाल्टी घाल’र पाणी काढण रो
जतन करती ही।

किसाण
पड़तल खेत मांय बार-बार
हळ चलावतो हो कै
कठै खेत उपजाऊ होय जावै।

आदमी,
बार-बार आपरी छतरी खोलतो हो कै,
कठै छांट्यां नीं होवण लाग जावै।

बूढै डोकरै रा पग कबर मांय लटक्या हा
पण सीखतो वो वरणमाळा हो।

उण टाबर री उमर
पढण-लिखण
खेलण-कूदण री ही
पण बण वो आदमी रैयो हो।</poem>
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